Thursday, November 6, 2014

जब-जब तुमको देखा मैंने
जाने क्या-क्या सोचा मैंने,
रूप के इस गहरे सागर में
कितने मोती कितने गहने।
ना जाने क्या हो जाता है
दूर कहीं मन खो जाता है,
मन के सूने गलियारे में
आ जाओ तुम पायल पहने।
सुबह की लाली जैसी तुम हो
धान की बाली जैसी तुम हो,
हम तो सुध-बुध खो देते हैं
जाने क्या है रूपनगर में। 
अपने में तुझको मैं देखूं
तुझमें मैं अपने को देखूं,
मुझमें-तुझमें फर्क यही है
तू मंजिल और मैं सफर में।
भीड़ में कातिल खड़ा है मौत का सामान लेकर
जिंदगी बेखौफ होकर जाने किसको ढूंढती है
बढ़ रहे कंक्रीट के जंगल जिधर भी देखिये,
पेड़ के साये न जाने किस गली में गुम हुए।
वक्त की रफ्तार ने कुछ इस तरह बदला मिजाज
जो कभी थे मौज-ए-दरिया आज वो साहिल हुए।
जो हमारी राह में कांटे बिछाता था कभी,
बाद मुद्दत के मिला वो आंख में आंसू लिए।
नींद से ख्वाबों का रिश्ता तो पुराना था बहुत,
आज के इस दौर में अब ख्वाब भी सपने हुए।
शाम से सूरज लिपटकर इस तरह कुछ सो गया,
फिर बिछड़ना है  नहीं अब जैसे सुबहा के लिए।

Wednesday, November 5, 2014


उम्र के इस मो़ड़ पे दिल की कहानी लिख रहा 
रेत की दीवार पे मैं फिर जवानी लिख रहा 
नाउम्मीदी का ये आखिर सिलसिला कब तक चले 
अनमनी सी शाम को मैं फिर सुहानी लिख रहा 
जिंदगी की राह में दुश्वारियां तो हैं मगर 
मैं अकेले ही सफर का फलसफा तय कर रहा 
आसमां को मैं जमीं पे लाऊंगा तुम देखना 
है बहुत मुश्किल मगर मैं कोशिशें तो कर रहा